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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।

अथवा
"व्यंग का जैसा प्रभावी, सार्थक और सटीक प्रयोग सूरदास ने अपने भ्रमर गीत में किया है वैसा अन्य कवियों में कम ही देखने को मिलता है।' इस कथन के आधार पर सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।

उत्तर -

सूरदास के काव्य में प्रमुख रूप से दो बातें पाई जाती हैं। एक तो गोपियों का विरह और दूसरे सूर की सगुण भक्ति। भ्रमरगीत प्रसंग की जब हम चर्चा करते हैं तो यकायक हमारा ध्यान शुक्ल जी के इस कथन की ओर चला जाता है जिसमें कहा गया है कि, "सूरदास जी में जितनी सहृदयता है प्रायः उतनी ही वाकपटुता भी इस कथन में प्रमुखतः दो पक्ष स्पष्ट हैं सूर की भावुकता और वाणी वाकपटुता या चतुराई। भावुकता से तात्पर्य उन सभी पंक्तियों से है जिसमें शृंगार के संयोग और वियोग पक्ष दोनों का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही साथ वाग्विदग्धता से तात्पर्य कहने की शैली और वाणी की कुशलता के साथ-साथ तर्कसंगत और अनेक कथन की नयी भावभंगिमाओं से है।

सहृदयता - भ्रमरगीत में प्राप्त सहृदयता गोपियों के विरह का प्राण है। उसी के सहारे इसे समझा जा सकता है। सहृदयता के लिए सबसे बड़ी बात है कि कवि की भावुकता और सृजनात्मक कल्पना। सूर के भ्रमरगीत में भावुकता और सृजनात्मक कल्पना के अनूठे उदाहरण भरे पड़े हैं। सूरदास के काव्य में जिस प्रेम का स्वरूप मिलता है, उसमें रूप, सौन्दर्य और साहचर्य का भी विशेष महत्व है। शुक्ल जी ने लिखा है कि बाल क्रीड़ा के सखा सखी आगे चलकर यौवन क्रीड़ा के सखा सखी ही हो जाते हैं। प्रेम विषयक अनेक भावुक और आह्लादकारी वर्णन सूर के काव्य में मिलता है। भ्रमरगीत यद्यपि विप्रलंभ शृंगार की ही सूचना देता है किन्तु सूर के सूरसागर के सम्बन्ध में कहे गये ये शब्द ध्यान देने योग्य है प्रेमसंगतिमय जीवन की एक गहरी चलती धारा है जिसमें आवाहन करने से दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई देता है।'

संयोग श्रृंगार के अनेक भावुक चित्र भरे पड़े हैं, जिसके "सूर का संयोग वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, विरह की घड़ियों में उद्धव को उपालंभ देते समय या उनके माध्यम से कृष्ण को कही गई उक्तियों में गोपियों का हृदय बोलता नजर आता है। निम्नलिखित कुछ पंक्तियाँ देखिए इनमें सूर की सहृदयता का परिचय मिल जाता है -

"निरखत अंङ्क श्याम सुन्दर के बार-बार लखति छाती।
लोचन जल कागद मसि मिलि कैं है गई स्याम की पाती॥

संयोग काल की सभी वस्तुएँ वियोग में काटने को दौड़ती हैं। चन्द्रमा, चाँदनी, कोयल और सभी हरी-भरी वनस्पतियाँ भी गोपियों को कष्ट देती हैं। वे कहती हैं -

या बिनु होत कहा अब सुनो।
लेकिन प्रकट कियो प्राची दिसि विरहिन को दुःख दुनो।

इसी क्रम में मधुवन, जो हरा-भरा दिखाई देता है, भी उनके उपालंभ का आश्रय बनता है। वे सोचती है कि कृष्ण की उपस्थिति में तो इसकी महत्ता थी अब इसका हरा-भरा होना व्यर्थ ही है अतः वे उसे कहती हैं-

मधुवन तुम कत रहत हरे।
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे?

विरह के क्षणों में मयूरों का नृत्य और बादलों का बरसना भी उन्हें अच्छा नहीं लगता है तभी तो वें कहती हैं -

वस ये वदराऊ बरसन आये।
अपनी अवधि जनि, नन्दनन्दन ! गरजि गगन घन छाये।
कहियत है सुरलोक बसत, सखि ! सेवक सदा पराये।

और मोर की स्थिति भी यही है -

हमारे भाई मोरड वैर परे

सहृदयता से पूर्ण चित्रण हमें उद्धव और गोपियों की परस्पर बातों से भी दिखाई देते हैं और इस प्रकार के चित्रणों की भ्रमरगीत में इतनी अधिकता है कि किसी भी पद में सरसता या भावुकता के दर्शन हो सकते हैं। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि देखो वन के चारों ओर बहार छाई हुई है और कोयल कूक- कूककर हृदय को कुरेदे डाल रही है और तुम -

ऊधौ ! कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेस करत हौ भस्म लगावन भावन॥
    X                             X                               X
हम तो निपट अहीर बाबरी जोग दीजिए ज्ञानिन।
कहा कहत मामो के आगे जानत नानी नानन।

कानन में कोयल कूक रही है और गोपियों का मन उस कूक की ओर है। शायद उसमें उन्हें कृष्ण की मुरली की तान सुनाई दे रही है किन्तु उद्धव अपनी ही गायें जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में गोपियों की खीझ स्वाभाविक है। इतना होते हुए भी वे जो कुछ भी कहती है वह बड़ी युक्तिपूर्ण बात है। लोकोक्तियों के साहचर्य के सहृदयता का अंश विशेष आ गया है। अरे उद्धव क्या भाभी के आगे ननिहाल की बातें करते हैं, हम सब जानती हैं। इसके साथ ही उद्धव के ज्ञानोपदेश के समय गोपियों का यह कथन बड़ा मार्मिक है -

ऊधो ! मन नाहीं दस बीस
एक हुतो सो गये स्याम संग को आराधै ईस।
ऊधो ! मन माने की बात।
दाख छोहरा छांड़ि अमृत फल विषकीरा विषखात॥

इन उद्धरणों से सिद्ध है कि सूर के भ्रमरगीत में विप्रलंभ शृंगार की जो सोअस्वनी प्रवाहित हो रही है उसमें सहृदयता की मात्रा अधिक है। पाठक का मन उसमें विषय की ऐकतानता होने पर इस सीमा तक रमता है कि उसे विषय की नवीनता की आशा ही व्यर्थ लगती है। वस्तुतः भ्रमरगीत की उस सहृदयता का रहस्य गोपियों का प्रेम है जिसमें एक निष्ठता है और है दृढ़ता।

वाग्-विदग्धता - सूरदास के काव्य में जो सरसता है वह अपने अंचल में कुछ ऐसे गुण भी बटोर लाई है जो वैदग्धपूर्ण भी है किन्तु वह विदग्धता ऐसी नहीं है जिसके लिए कोई कहे कि यह कोरा वाक्जाल है। सच्चाई यह है कि उक्ति वैचित्र्य भाव प्रेरित है। यही कारण है कि गोपियाँ अपने विरह के अभिव्यंजन में जिस शैली का सहारा लेती है वह सरसता और वाकपटुता दोनों के मेल से बनी है। भ्रमरगीत का सबसे बड़ा आकर्षक ही कथन पद्धति की विशेषता है। वियोगिनी गोपियों को जो दुःख भोगना पड़ रहा है उसे वह ढंग से कहती है कि पाठक मन मसोस कर रह जाता है। बात सारे भ्रमरगीत में एक ही है और वह है उद्धव ! हमें कृष्ण प्यारे हैं, हम उनकी ही दासी या प्रेम में पगी सखियाँ हैं। अतः तुम हमें योग आदि की शिक्षा मत दो। हम तो विरह के मारे ही व्यथित हैं तुम्हें योग की पड़ी हैं। वे अपनी बात भी कह देती हैं और उद्धव की बात भी कह देता है और उद्धव की बात का खण्डन भी। पहिले पहल वे सरस और मार्मिक ढंग से कहती हैं।

आओ घोस बडौ व्यापारी
लादि खेप गुन-ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी।
उनके कहे कौन हकावै ऐली कौन अजानी।
अपनो दूध छांडि को पीवे खार कूप को पानी।

कहना यह है कि हमें कृष्ण प्यारे हैं अतः तुम्हारा योग हमारे अनुकूल नहीं है। इसी बात के कथन में अन्तिम पंक्ति गम्भीरता से देखिए। अपनी बात की पुष्टि के लिए क्या प्रमाण दिया है और साथ ही अपने प्रेम की श्रेष्ठता की तुलना में योग को 'खार कूप को पानी कहकर तो मानो अपने प्रेम और योग का पार्थव व्यंजित कर दिया है। सम्पूर्ण भ्रमरगीत में यही तो एक तथ्य है जिसे गोपियाँ अनेक ढंगों से कहती हैं-

1. रहु रे मधुकर ! मधु मतवारे।
    कहा करौ निगुन लै कै हो जीवहु कान्ह हमारे
    लोटत नीच पराग पंक में पचत न आपु, सम्हारे॥
2. जगत सोवत, सपने सौ तुख कान्ह जकरी।
    सुनतहिं जोग लागत अति ऐसो ज्यों करुई ककरी॥
    सोई व्याधि हमें लै आये, देखी सुनी न करी।
    यह तो सूर तिन्हें लै दीजे जिनके मन चकरी॥

इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि गोपियों के प्रेम में इतनी दृढ़ता है कि वे योग को अपनाना तो दूर रहा सुनना भी नहीं चाहती हैं।

'मोहन मांग्यो अपनो रूप पद में साधारण और गवारिनों का उत्तर नहीं है और तर्क का हलकापन ही है। इसमें तो ज्ञान ही साक्षात् प्रतिमाएँ बुद्धिमान गोपियों का तर्क है। निराकार पर व्यंग्य और साथ ही विनोद उद्धव के प्रति मार्मिक है। वह वाग्वैदग्ध्य जो भाव प्रेरित है कोरा वाक् जाल नहीं है। अपनी बात की पुष्टि के लिए वे कृष्ण और राम पति था जो अपनी क्रिया के लिए वन भटकता रहा हो और किसी प्रकार का निगम ज्ञान सीता के संदेश के रूप में नहीं भेजा। सुनिये, गोपियों की वाणी से फूटे शब्द जिनमें सहृदयता और वचनवक्रता दोनों का तुल्य योग है।

हरि सों भलो सो पति सीता को।
बन बन खोजत फिरे बन्धु संग कियो सिन्धु बीता तो।
रावन मारन मारयो लंका जारी, मुख देख्यो सीता को।
दूत हाथ उन्हें लिखि न पठायो, निगम ज्ञान गीता को।

फिर भी -

कीन्हीं कृपा जो लिखि भेजो निरखु पत्ररी !
ताको। सूरदास प्रेम कहा जानै लोभी नवीनता को।

गोपी वस्तुतः अपने पक्ष पर इतनी दृढ़ है कि वे उसके प्रतिपादन के लिए अनेक तर्क गढ़ लेते हैं।

घर ही के बड़े रावरे।
नाहिंन मीत वियोग बस परे अनवडगे अति बावरे।
मुख मरि जाय चरै नहीं तिनुका, सिंह को यह है स्वभाव रे॥

कई स्थानों पर तो सूर ने प्रतिपक्षी के कथन को अविश्वास की आंखों से इस तरह देखा है कि उक्ति में वैचित्र्य मार्मिकता दोनों का समावेश हो गया है -

ऊधौ, हम अजन मत भोरी।
कंचन को मृग कौने देख्यों कौने बाध्यो डोरी।
कहुधौ ! मधुप ! बारि मथि माखन, कोने भरी कमोरी?
बिन ही भीत चित्र बिन काढ्यो, किन नभ वाध्यो झोरी।
कहो कौन पैं कढ़त कनूकी, जिन हठि भुसी पधोरी।

वाक् विदग्धता में तुलनात्मक पद्धति को अपनाकर भी अनेक स्थलों पर रमणीयता और सरसता का निदर्शन कराया है। सूर ने सारे भ्रमरगीत में उसी पद्धति को अपनाया है। इससे भक्ति मार्ग की सरसता द्वारा योगमार्ग की कठोरता और नीखता का परिहास करने में आसनी हो गई है। अनेक दृष्टान्त भी रखे जा सकते हैं और कहा गया है कि जिसकी जो आदत होती है वह जाती नहीं है। अपनी-अपनी मनमौजी और पसन्द है।

अटपटी बात तिहारी ऊधौ, सुनौ सो ऐसी को हैं।
हम अहीर अबला सठ, मधुकर ! तिन्हें जोग कैसे सो है॥
बूचाहिं खुनी आधरी काजर, नकटी पहिरै बेसरि।
मुड़ली पाट पारन चाहे, कोढ़ी अंगहि केसरि॥

और भी -

प्रकृति जोई जाके अंग परी।
स्वान पूंछ कोटिक जो राखे रुधिन काहु न करी।
जैसे काग मच्छ नहीं छांडत जनमत जो न धरी॥

गोपियाँ पूर्णरूपेण इस बात पर उतर आयी हैं कि कृष्ण ने बहुत बुरा किया है कि हमारा दिल चुराया है और वहाँ जा बैठा है खबर तक नहीं ली है। इस बात का दुःख उठाते हुए भी वे खुश हैं क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि कुब्जा ने उनका (कृष्ण) हृदय चुरा लिया है। वस्तुतः कितना संतोष है उन्हें। वस्तुतः गोपियों की इस सूझबूझ में उनकी वाक्पटुता के ही दर्शन होते हैं।

बस पै कुब्जा भलो कियो।
सुनि सुनि समाचार ऊधो मो किछकु सिरात हियो
जाको गुन गति नाम, रूप हरि, हारयो फिरि न दियो।
तिन अपनो मन हरत न जान्यौं, हंसि हंसि लोग जियो।
सूर तनिक चंदन चढ़ाय तन ब्रजपति वस्य कियो।
और सकल नारिन को दासी, दांव लियो।

वस्तुतः भावुकता और वाक्पटुता का इतना सुन्दर सम्मिलन भ्रमरगीत के अतिरिक्त और कहाँ मिलेगा। गोपियाँ एक ओर तो उद्धव को खरी-खरी सुनाने के लिए कथन की नयी नयी शैलियों का प्रयोग करती हैं और दूसरी ओर अपनी रागात्मक वृत्ति का परिचय भी दे देती हैं। दृष्टांत तुलनात्मक खण्डन, मण्डन की और न मालूम कितनी नई शैलियाँ भ्रमरगीत में प्राप्त हैं। भ्रमरगीत में वचन वक्रता का एक कारण यह भी है कि गोपियाँ सम्मिलित रूप से अपने पक्ष की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में बडी आश्वस्त हैं। अतः वे प्रत्येक कथन में कोई न कोई ऐसी विधि अपनाती हैं कि बात उद्धव के हृदय को बेध डाले और वे खीझ उठें, विद्रूपित हो जावें। इसी कारण वे उद्धव को ज्ञानोपदेश से ऊबी हुई यह कहती है -

ऊधो ! और कछु कहिवे को?
सोऊ कहि डारौ पालागौ, हम सब सुनि साहिबे को।
कभी कहती हैं कि -
ऊधो ! भली करी अब आयो।
ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हंसाये॥
भर्त्सना का स्वर भी बड़ा वाग्वैदग्ध्यपूर्ण है। देखियेगा -
ऊधो ! कही सो बहुरि न कहियो।
जो तुम हमहिं जिवायो चाहौ, अन बोले हवै रहियौ॥

खीझने पर जो वे कहती हैं तो उस कथन को पढ़कर ऐसा लगता है कि उससे सहृदयता और वचन वक्रता का संयोग मार्मिक है -

ऊधो राखति हों पति तेरी।
हम ते जाहु दुरहु आगे ते देखत आँख बरत है मेरी।

भ्रमरगीत का सबसे बड़ा आकर्षण सूर की कथन पद्धति है। यों तो अनेक कवियों ने अपने-अपने भावों की अभिव्यक्ति अपने-अपने ढंग से की है किन्तु सूर को इस क्षेत्र में कमाल हासिल है। यही कारण है कि सूर के काव्य में जो अनूठापन पाया जाता है उसका कारण भावातिशय के कारण उत्पन्न उक्ति वैचित्र्य है न कि केवल चमात्कारातिशय की प्रवृत्ति। "भावोच्छ्वसित सागर की अनंत लहरियों के समान, सूर की अभिव्यक्ति गतियाँ भी वक्र और विचित्र हैं उनका सौन्दर्य वही समझ सकता है जो सागर की गहराई का कुछ अनुमान लगा सकता है। जिस प्रकार क्षोभ, लहर और गति का सम्बन्ध होता है उसी प्रकार भाव और अभिव्यक्ति में सम्बन्ध होता है। वाग्वैदग्ध्य को उसके पीछे के भाववादवैग्ध्य के बिना नहीं समझ सकता। सूर की वक्रोक्ति को पढ़कर गोपी की क्षुभित चेतना स्वतः प्रकट हो जाती है, यही उनके काव्य का अनूठापन है।

भ्रमरगीत में जो वैदग्ध्य मिलता है वह कई प्रकार का है। कहीं तो प्रयत्नहीन है और कहीं उसमें पर्याप्त वैविध्य मिलता है। मानसिक स्थिति का सही प्रकाशन करने के लिए गोपियों के पास अनेक शैलियाँ हैं, अनेक पद्धतियाँ हैं। इनको समझने के लिए दो चार उदाहरण दिये जा सकते हैं-

तेरो बुरो न कोऊ मानै।
रस की बात मधुप नीरस, सुन रसिक होत सो जानै।

इसके साथ ही कहीं गोपियाँ चुनौती भी देती हैं और अपना पक्ष प्रतिष्ठित करती हैं इस चुनौती के पीछे भी आत्मविश्वास की गरिमा है। गोपियाँ अडिग और निष्कम्प चित्तवृत्ति' चुनौती के रूप में अपनी वस्तु को उपस्थित करने में अभी नहीं घबराती है। अतः उक्ति में एक विशेष प्रकार की दृढ़ता उत्पन्न हो जाती है -

घर ही के बड़े रावरे।
नाहिंन मीत वियोग बस परे अनवउगे अलि बावरे
भुख मरि जाय चरै नहीं तिनुका, सिंह का यहै स्वभाव रे॥

उक्ति वैचित्र्य के प्रदर्शन के लिए कहीं-कहीं तुलनात्मक पद्धति को भी अपनाया गया है। स्वपक्ष और प्रतिपक्ष की तुलना करके भी भ्रमरगीत में अनेक स्थलों पर वैदग्ध्यपूर्ण बना दिया गया है। इस पद्धति का ही सर्वाधिक प्रयोग सूर ने किया है। यही वह पद्धति है जिसके सहारे वे अपने भक्ति मत की प्रस्थापना और योग मत की जटिलता को प्रस्तुत कर सके हैं। इस पद्धति के साथ ही दृष्टान्त पद्धति भी भ्रमरगीत के वैदग्ध्य को बढ़ावा देने में समर्थ है। सूर की गोपियों ने अपने प्रतिपक्षी के लिए चुन-चुन कर दृष्टान्त पेश किये हैं। ये सभी लोकानुभव पर आधारित है -

अटपटि बात तिहारी ऊधौ, सुनौ तो ऐसी को है?
हम अहीर अबला सठ, मधुकर ! तिन्हें जोग कैसे सौहे।
बूचिहि खुभी आंधरी काजर, नकटी पहिरै बेसरि।
मुंडली पाटी पाटन चाहै, कोढ़ि अंगहि केसरि॥

भ्रमरगीत में आई वचनवक्रता का यह कारण भी है कि उसमें गोपियाँ सामूहिक रूप से अपना मत प्रस्तुत करती हैं और उद्धव का उपहास कर विद्रूपीकरण की शैली के सहारे उपालंभों का जाल बिछाती जाती हैं। उपालंभ और विद्रूपीकरण के सहारे ही भ्रमरगीत की वचनवक्रता बढ़ गयी है। गोपियाँ कभी तो कहती हैं -

ऊधो ! और कछू कहिवे को?
सोऊ काहि डारौ पालागौं, हम सब मुनि साहिबे को।
कभी यह कहती हैं -
ऊधो ! भली करी तुम आये
ये बात कहि कहि या दुख में ब्रज के कोग हँसाए।

उपालंभ परिहास और तिरस्कार के सहारे भ्रमर गीत में वैदग्ध की मात्रा बढ़ गई है और इसी कारण विप्रलंभ शृंगार चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया है। स्पष्ट ही भ्रमरगीत में जितनी सहृदयता है उतनी ही वाग्विदग्धता भी है। प्रेम का इतना सच्चा पारखी सूर के अलावा और कौन हो सकता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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